Politics

Leadership

One of the primary aspects of leadership is having a clear vision for where you are going. As a politician/leader, one should start the tenure by setting the vision for what success looks like in a constituent assembly. Great leaders think big and develop a vision for the development of its people.

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दलितों के ख़िलाफ़ अपराध बढ़ने कम क्यों नहीं हो रहे हैं ?

कुछ घटनाएँ हमें चौंका देती हैं । कुछ ऐसी होती हैं , जिनकी स्मृति हमें सोने तक नही देती । राजस्थान से कुछ दिनों पहले ऐसी ही एक ख़बर आई । 9 साल के दलित बच्चे की शिक्षक की पिटाई से मौत हो गई । घरवालों ने आरोप लगाया कि पानी का मटका छूने पर टीचर ने बच्चे की बेरहमी से पीटा था । 23 दिन बाद इस बच्चे की मौत हो गई । हम जिस समाज में हैं , वहाँ सबसे ख़राब बात ये हो रही है कि हम इन ख़बरों को ले कर सहज होते जा रहे हैं ।

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उबर पर एक ख़तरनाक रिपोर्ट आई है । बुक करने से पहले पढ़ लीजिए ।

एक बड़ी कम्पनी है उबर । मोबाइल एप के ज़रिए आम लोगों का टैक्सी यानी कैब मुहैया कराने का काम है इसका । भारत सहित दुनिया के कई देशों में इसके कारोबार हैं ।देखा गया है कि बड़ी कम्पनियाँ कई दफ़ा बड़ी ग़लतियाँ करती हैं और अपनी बड़े होने की ज़िम्मेदारी से भागती रहती है । उबर ने भी यही किया है । ‘उबर फ़ाइल्स’ नाम से एक रिपोर्ट आई है । इस रिपोर्ट ने कई हैरान करने वाले सवाल खड़े किए हैं ।

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बिलक़िस बानो केस के दोषियों की रिहाई पर 5 सवाल ?

28 फरवरी 2002 का दिन । गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे । बिलकिस बानो 5 महीने की गर्भवती थीं । दंगाइयों से बचने के लिए वह अपने परिवार के 15 लोगों के साथ एक खेत में जा छिपीं । 3 मार्च एक बुरा दिन था । उस दिन दंगाइयों से बिलकिस बच नहीं पायीं । उनके परिवार के 7 लोगों की उनके सामने क्रूर हत्या की गयी, जिसमें बच्चे भी शामिल थे । बिलिकिस के साथ कई लोगों ने गैंग रेप किया । क्या आप जानते हैं ? इस पैशाचिक अपराध को अंजाम देने वाले आज जेल के बाहर आज़ाद घूम रहे हैं । गुजरात सरकार ने उन्हें 15 अगस्त के दिन रिहा कर दिया है ।

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गुलाम नबी हुए “आज़ाद”

ये किस्सा वही है जो दोहराया गया है। चिट्ठी नयी है पर मज़मून पुराना। G-23 की चिट्ठी में भी गुलाम नबी आज़ाद और कांग्रेस के बागी साथियों के निशाने पर राहुल गांधी ही थे, अब भी उनके के निशाने पर पर राहुल गांधी ही हैं। फर्क बस इतना है कि इस बार नाम खुल कर लिया जा रहा है।

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क्या भाजपा 2024 में बहुमत के आँकड़े से दूर रहेगी ?

कमाल है ! भारत की राजनीति आपको चौंकाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती । ख़बर है कि बिहार में महागठबंधन की सरकार एक बार फिर से बन गई है ।नीतीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया है और आठवीं बार सीएम पद की शपथ भी ले ली है । सरकार बदलने की इस पूरी क़वायद पर तमाम विश्लेषण हो रहे हैं पर हम आपके लिए लाए हैं – चुनावी विश्लेषक – योगेन्द्र यादव की सुपर एनालिसिस ,वो भी आपकी भाषा में ।

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Communism in India: Destined for Failure?

What image comes to your mind when you think of an Indian Communist? Most of you might visualise a man at least in his sixties, in a white kurta, wearing glasses with an unconvincing smile on his face. He seems to be giving a speech in front of an oldish microphone, shouting ideological jargon- words like “revolution” and “cholbe na” being commonly uttered.

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भारत में जनसंख्या को ले कर चलने वाली बहस यूरोप की ग़ुलाम क्यों है ?

खबर आई कि लोकसभा में जनसंख्या बिल पेश होने वाला है । इस पर भारत में लम्बी बहस हुई है । अगर आप ग़ौर से देखेंगे तो भारत में यह बहस दो तरह के दबावों की वजह से चलती है । पहला दबाव भारत के धुर हिंदुत्ववादी खेमे का है ,जिसे लगता है कि ‘मुसलमान सुनुयोजित तरीक़े से भारत में जनसांख्यकीय बदलाव करना चाहते हैं । दूसरा दबाव , उदारवादियों का है , जिन्हें उन बहुसंख्यक सांप्रदायिकों से शिकायत रहती है कि ये लोग ‘दस बच्चे’ पैदा करने की अवैज्ञानिक वकालत ‘रिएक्शन’ ’ में क्यों कर रहे हैं । एक तीसरा खेमा है , जो संख्या में ज़रूर छोटा है ,पर उसकी चिंता प्रकृति से सीमित संख्या में मिले संसाधनों से जुड़ी है । ज़्यादा संख्या में बढ़ते हुए लोग नेचर का इतना दोहन करेंगे कि संसाधनो की कमी के नए संकट पैदा हो जाएँगे । इसका परिणाम होगा – निचला जीवन स्तर ,युद्ध और भुखमरी- यह तीसरे खेमे की चिंता है ।

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सालाबेग- युद्ध से भक्ति तक

लेखक – अदनान भक्ति को सर्वोपरि माना जाता है । यह भावना जाति, लिंग, आयु, धर्म की मानव निर्मित सभी सीमाओं को पार कर जाती है। आज हम आपके लिए भगवान जगन्नाथ के एक महान भक्त की कहानी बताना चाहते हैं । वह भले ही अलग धर्म में पैदा हुए थे लेकिन उनकी भावनाओं और […]

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हम सब इतने आधे -अधूरे और बेचैन क्यों हैं?

भारतीय जीवन क्या सच में अब निराश नहीं है? धूप में घुटते हुए, रोज़मर्रा के जीवन को ढोते हुए, एक दैनिक क्रम के दोहराव में,क्याकभी नहीं लगता कि हमने कुछ मिस कर दिया है। हज़ार तरक़्क़ी के बावजूद ड्रग्स में मुक्ति खोजती आँखे क्या विवश नहीं हैं? क्या कोईध्येय है जो जीवन की इन निराशाओं से उबार सकता था? हमें कुछ होने के एक सुकून भरे स्वप्न में जीवित रख सकता था? क्यों हमारेख़्वाब इतने मटमैले हैं कि उनकी मोक्ष सिर्फ़ चेतना से दूर होती शामों में , ख़ुद को भुलाकर हम खोजते रहते हैं?

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