बिलक़िस बानो केस के दोषियों की रिहाई पर 5 सवाल ?

लेखक आशुतोष तिवारी

28 फरवरी 2002 का दिन । गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे । बिलकिस बानो 5 महीने की गर्भवती थीं । दंगाइयों से बचने के लिए वह अपने परिवार के 15 लोगों के साथ एक खेत में जा छिपीं । 3 मार्च एक बुरा दिन था । उस दिन दंगाइयों से बिलकिस बच नहीं पायीं । उनके परिवार के 7 लोगों की उनके सामने क्रूर हत्या की गयी, जिसमें बच्चे भी शामिल थे । बिलिकिस के साथ कई लोगों ने गैंग रेप किया । क्या आप जानते हैं ? इस पैशाचिक अपराध को अंजाम देने वाले आज जेल के बाहर आज़ाद घूम रहे हैं । गुजरात सरकार ने उन्हें 15 अगस्त के दिन रिहा कर दिया है ।

मामले को समझने के लिए अतीत में चलते हैं । इस घटना के बाद न्याय के लिए बिलक़िस सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं थीं ।कोर्ट ने उस दौरान क़रीब 9 जिलों के ऐसे 9 केसों की लिस्ट बनाई और हरीश साल्वे को इसके लिए न्याय -मित्र बनाया । बिलक़िस के मामले की अहमियत समझते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस केस को CBI के पास ट्रांसफर किया। करीब 2 साल बाद 2004 में इस मामले से जुड़े आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।

अहमदाबाद में ट्रायल शुरू हुआ तो दिक्कतें आने लगीं । सबूतों के साथ खिलवाड़ की सम्भावना थी । बिलकिस फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं और कहा कि केस अहमदाबाद से मुंबई ट्रांसफर किया जाए । सुप्रीम कोर्ट ने यह बात समझी और अगस्त 2004 में केस मुंबई ट्रांसफर कर दिया गया। 4 साल बाद 21 जनवरी 2008 को CBI की विशेष अदालत ने 11 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई।

अब चौंकाने वाली बात ये है कि इतने हीनतम अपराध में 15 अगस्त को गुजरात सरकार ने सभी 11 दोषियों को रिहा कर दिया । हवाला दिया रिमिशन पॉलिसी का यानी 14 साल की सजा पूरी होने के बाद माफ़ी के प्रावधान का । इस फ़ैसले के बाद गुजरात सरकार की आलोचना हो रही है । सुप्रीम कोर्ट में सीपीएम सांसद सहित दो अन्य लोगों ने याचिका भी दायर की है । इस मामले में गुजरात सरकार से कुछ अहम सवाल हैं , जो मेरे जहन में आ रहे हैं –

1- उम्रकैद का मतलब होता है उम्रभर की क़ैद । यह एक गलत धारणा ये है कि आजीवन कारावास की सजा काट रहे कैदी को 14 या 20 साल की ही सज़ा होती है। उम्रकैद या आजीवन सजा आख़िरी साँस तक होती है ।इसमें यह समय पूरा होने के बाद सिर्फ़ क्षमा या माफ़ी मिल सकती है, लेकिन अनिवार्य रूप से नही ,बल्कि मामले को देखते हुए । CrPC के सेक्शन 432 का सरकारें सहारा ले कर ऐसा करती हैं । पर सवाल ये है कि क्या ये मामला एक साधारण अपराध का है ,जिसमें रिहाई , माफ़ी जैसे विकल्प को अपनाया जाना चाहिए था ? इससे समाज में क्या संदेश जाता है।

2- सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद सरकार से इस मामले में पूछा है कि

क्या नियमों के तहत दोषी छूट के हकदार हैं?
क्या इस मामले में छूट देते समय एप्लिकेशन ऑफ माइंड का इस्तेमाल किया गया था?

‘एप्लिकेशन ऑफ माइंड एक ज्यूडिशियल टर्म है । जब भी किसी को रिहा किया जाता है या जमानत दी जाती है, तो उसको लेकर कोई लॉजिक दिया जाता है या कोई वजह बताई जाती है। अगर वजह पर्याप्त है, तो वह फैसला टिकता है।
अगर सुप्रीम कोर्ट नोटिस दे कर ख़ुद सरकार से यह पूछ रहा है तो क्या वाक़ई इनकी रिहाई के पक्ष में तर्क वाक़ई इतना गम्भीर था , जो सुप्रीम कोर्ट को पूछना पड़ रहा है ?

3- इस मामले में गुजरात सरकार के फ़ैसले को किस तरह ग़ैर पक्षपाती या साधारण फ़ैसला समझा जा सकता है ? यह मामला गुजरात से महाराष्ट्र ट्रांसफ़र ही इसलिए किया गया था कि इसमें सिस्टम से लगातार वाजिब मदद नही मिल पा रही थी ।

4- रेप एक तरह का प्रतीकात्मक अपराध है । यह पीड़ित की आत्मा यानी सेल्फ़ ,समुदाय ,जाति ,उसकी पहचान पर हमला करता है । ख़ास तौर से साम्प्रदायिक मामले में गैंगरेप की घटना इसलिए इसलिए अंजाम दी जाती है ताकि किसी ‘ समुदाय- विशेष को सबक़ सिखाया जा सके ।सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह ने भी इसी बात को अपने एक लेख में उठाया है । ऐसे अपराधों में जो भी फ़ैसला सरकार लेती है ,उसके कई संदेश बनते हैं समाज के लिए । सरकार के इस फ़ैसले से क्या संदेश गया है?

5- जून 2022 में केंद्र सरकार ने दोषी कैदियों को जेल से रिहा करने के मकसद से राज्य सरकारों के लिए एक गाइडलाइन जारी की है । इस गाइडलाइन में रेप के दोषी समय से पहले जेल से रिहाई के हकदार नहीं हैं ।नई गाइड लाइन के अनुसार रेप , आतंक, दहेज हत्या और मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में दोषी समय से पहले नही रिहा किया जा सकता । मतलब सरकार इन मुद्दों को गम्भीर समझती है क्या गुजरात सरकार ने इस मामले की गम्भीरता को देखते हुए इस गाइड लाइन से कोई नैतिक प्रेरणा ली ?

सवाल कई सारे हैं ,लेकिन जवाब नहीं । हम जहाँ रहते हैं , वह आइडियल समाज नही है , पर हम कोशिश करते हैं । इस तरह के फ़ैसले सरकार के प्रति, संस्थाओं के प्रति समुदायों में अविश्वास जगाते हैं । जैसा कि मैने ऊपर लिखा है कि बिलक़िस जैसे मामलों पर आम लोगों की नज़र होती है और इन पर आए फ़ैसलों से लोगों के आदर्श और नसीहतें तय होती है । अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को ले कर गम्भीर हो रहा है ।

( इस ब्लॉग में तथ्यों के लिए दैनिक भास्कर के सम्पादकीय / एक्सप्लेनर और सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह के इंडियन एक्सप्रेस में छपे लेख का सहारा लिया गया है । )

Ashutosh Tiwari

अपने विषय में बताना ऐसा लगता है, जैसे स्वयं को किसी अजनबी की तरह देख रहा होऊँ । लेकिन ख़ुद को अजनबी की तरह देखना ही हमें ईमानदार बनाता है। नाम आशुतोष तिवारी है । कानपुर से हूँ। शुरुआती पढ़ाई हुई होम टाउन से। फिर पत्रकारिता से स्नातक की पढ़ाई करने दिल्ली आ गया। 2016 में IIMC में डिप्लोमा किया और आ गया IPAC । चार साल यानी 2020 तक यहीं रहा। मीडिया फ़ील्ड डेटा, PIU और लॉजिस्टिक आदि लगभग सभी गलियारों में घूमा और 2020 में चला गया हिंदी से मास्टर और JRF करने। अब फिर से 2021 में वापस आ गया हूँ। एक यूट्यूब चैनल है। हिंदी साहित्य में ख़ास रुचि है। किताबें पढ़ना, फ़िल्में देखना पसंद है।

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