हम सब इतने आधे -अधूरे और बेचैन क्यों हैं?

लेखक : आशुतोष तिवारी

भारतीय जीवन क्या सच में अब निराश नहीं है? धूप में घुटते हुए, रोज़मर्रा के जीवन को ढोते हुए, एक दैनिक क्रम के दोहराव में,क्याकभी नहीं लगता कि हमने कुछ मिस कर दिया है। हज़ार तरक़्क़ी के बावजूद ड्रग्स में मुक्ति खोजती आँखे क्या विवश नहीं हैं? क्या कोईध्येय है जो जीवन की इन निराशाओं से उबार सकता था? हमें कुछ होने के एक सुकून भरे स्वप्न में जीवित रख सकता था? क्यों हमारेख़्वाब इतने मटमैले हैं कि उनकी मोक्ष सिर्फ़ चेतना से दूर होती शामों में , ख़ुद को भुलाकर हम खोजते रहते हैं?

तब यहाँ आता है ‘आस्थाओं’ का सवाल। जीवन के प्रति आस्था। सामूहिकता के प्रति आस्था। तर्कों से परे, किसी विश्वास की आस्था।क्या यह सभी धूमिल नहीं हो चुकी हैं? पश्चिम जहाँ इस बात पर हाथ खड़े कर चुका है कि तर्क और संख्याएँ दुनिया की सीमित समझके लिए पर्याप्त है लेकिन मनुष्य का आत्म यानी सेल्फ़ इनसे सुखी न हो सकेगा। वहाँ के इतिहास और काल की समझ भी आदमी कीसनातानता से हाथ खड़े कर चुकी है, और अल्बेर कामू की भाषा में कहें तो वहाँ यह मान लिया गया है कि इस विडम्बना पूर्ण मनुष्यजीवन को ढोना ही होगा। इसलिए वहाँ भौतिक जीवन को ख़ूब सुविधाओं से भरने की एक मुहिम सी चल पड़ी है। हालाँकि इसके बादवह इस बात से अवगत है कि सेल्फ़ यानी आत्म का सुकून परस्पर प्रेम, आस्थाओं, मिथकों और उन बिंबों से ही सही होगा, जिसकीआधार शिला ‘भावना’ है।

जी हाँ। बुद्धि नहीं भावना। एक ऐसी घटना, जिसका उदय दिल में पहाड़ से ठहराव के बनिस्बत एक बहती हुई नदी सी पैदा कर देता है।दरअसल जिसे हम चेतना कहते हैं- हमारे होने का सेंस, वह सिर्फ़ ‘बुद्धि’ नहीं है। वह हमारी चेतना का एक गणितीय क़िस्म का विभाग हैयानी मैथमैटिकल डिपार्टमेंट। क्या कभी जीवन से इतने मात्र से चल सका है? अगर ऐसा होता तो तर्क युक्त मानस की परिणितियाँ इतनीनिराशात्मक नहीं होती। इसी चेतना के दूसरे हिस्से भी हैं, जिसे हम भावना या दिल विभाग, स्मृति विभाग या यादों का डिपार्टमेंट, धर्म-परम्परा यानी मिथक डिपार्टमेंट कहते हैं। यह बाक़ी तीन हिस्से भी ख़ुद को समझने, ख़ुद की शांति के लिए उतने ही ज़रूरी हैं,जितनीज़रूरी है बुद्धि। क्या हम ईमानदारी से कह सकते हैं कि हमने इन चारों डिपार्टमेंट में बेहतर समन्वय किया है?

हम सभी की चेतना भूखी हैं। हमेशा कुछ खोजती हुई। पर हमने उसे खाने के लिए क्या दिया है। दफ़्तरों की प्रतिस्पर्धा, आगे बढ़ने कीअंतहीन लालसा, सिर्फ़ भौतिक दुनिया में कुछ अर्जन के स्वप्न, इनसे क्या होगा? क्या ये हमें कभी शांत कर पाएँगे। हो सकता है ये चेतनाके एक हिस्से की प्यास बुझा सकता हो लेकिन यह कहते हुए निराशा हो रही है कि जो लोग पोस्ट पोज़िटिविजम से परिचित हैं, वहजानते है की भूखी चेतना को तर्कों के भोजन से प्यास बढ़ी है, कम नहीं हुई है। इसलिए सवाल समन्वय का है, भावना, मिथक और स्मृतिके बीच बेहतर समन्वय का।

एक और त्रासदी भारतीय मनुष्य के साथ हुई है। इसे ऐसे समझें। मनुष्य क्या है? क्या वह सिर्फ़ एक भौतिक ढाँचा है, जिसे अपने सुखोंके लिए साधन जुटाते हुए मर जाना है? फिर इस अर्थ में वह पशुओं से अलग कैसा हुआ है? ज़ाहिर सी बात है, मनुष्य वह है, जिसकाअपना अतीत है, जिसके कुछ विश्वास हैं, जिसकी कुछ आस्थाएँ हैं, जिसके पुरखे हैं, जिसकी कुछ स्मृति है, जिसकी कुछ थाती है। यहसब ही तो मनुष्य को ज़्यादा गरिममय जीव बनाता है इस धरती पर । भारत के मनुष्य की जड़ें तो हज़ार सालों की उन प्रैक्टिसेस में ही हैं, जिनमें मैं और अन्य का भेद नहीं है, जिसमें आदमी और प्रकृति का रिश्ता बहुत ही सौहार्द भरा है, जहाँ पृथ्वी को आदमी की भोग भूमिनहीं, बल्कि उसके साथ उसका ही एक अंश माना गया है। भारत का मानस तमाम ऐतिहासिक ख़ामियों के बाद तो इन्ही तत्वों से बना है।यह आस्थाएँ भारतीय मनुष्य को जीवन देती रहीं। ग़रीबी और ग़ुलामी के बावजूद भी अगर हम स्वप्न देख सके, स्वाभिमान से रह सके तोइसीलिए कि कुछ था जो हमारी जड़ों से हमें सींच रहा था।

लेकिन फिर क्या हुआ। आज जो भाग-दौड़ हम देखते हैं,जो हमारे स्वप्न है, उसमें हमारी आस्थाएँ अब ग़ायब है। हर आदमी अब एकऐसी रेस में है जिसकी चेतना यहाँ के संस्कारों से प्रेरणा न लेते हुए भाग-दौड़ की उस संस्कृति से ले रही है, जिसका वाहक यूरोप रहा है।तर्कों का केंद्र। इलियट की भाषा में भौतिकता का मरुस्थल यूरोप। ऐसा यूरोप जहाँ के चिंतन ने आदमी को इतना अकेला कर दिया औरउसके द्वारा बनायी संस्थाओं को दुनिया में इतना विशिष्ट बना दिया की दो विश्व युद्ध हुए और दुनिया आज बमों पर बैठी हुई है।आस्थाओं के अंत में यूरोप का कम हाथ नहीं है। यहाँ मैं सावधान कर दूँ कि मैं यहाँ आम दक्षिणपंथियों की तरह यह हल्की बात नहीं कहरहा कि पश्चिम ने हमारे मानस को दूषित कर दिया, बल्कि यह कहा जा रहा है कि हमारी चेतना के चार विभागों के बीच जो समन्वय था, बुद्धि के अलावा भी हमारी जो आस्थाएँ थीं, हम उनसे विस्थापित हुए हैं। हमारी जड़ें नहीं पता है, कहाँ है। तर्कों की परम्परा ने हर बात परसंशय करना सिखा दिया है। हमारा ख़ुद का व्यक्तित्व भी अब हमें कई उलझनों से भरा लगता है। बुद्धि से दुनिया समझने की और दिमाग़से सपने देखने की हमारी ज़िद ने हमें भीतर तक कितना ख़ाली कर दिया है।

Ashutosh Tiwari

अपने विषय में बताना ऐसा लगता है, जैसे स्वयं को किसी अजनबी की तरह देख रहा होऊँ । लेकिन ख़ुद को अजनबी की तरह देखना ही हमें ईमानदार बनाता है। नाम आशुतोष तिवारी है । कानपुर से हूँ। शुरुआती पढ़ाई हुई होम टाउन से। फिर पत्रकारिता से स्नातक की पढ़ाई करने दिल्ली आ गया। 2016 में IIMC में डिप्लोमा किया और आ गया IPAC । चार साल यानी 2020 तक यहीं रहा। मीडिया फ़ील्ड डेटा, PIU और लॉजिस्टिक आदि लगभग सभी गलियारों में घूमा और 2020 में चला गया हिंदी से मास्टर और JRF करने। अब फिर से 2021 में वापस आ गया हूँ। एक यूट्यूब चैनल है। हिंदी साहित्य में ख़ास रुचि है। किताबें पढ़ना, फ़िल्में देखना पसंद है।

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