भारत में जनसंख्या को ले कर चलने वाली बहस यूरोप की ग़ुलाम क्यों है ?

लेखक : आशुतोष तिवारी

खबर आई कि लोकसभा में जनसंख्या बिल पेश होने वाला है । इस पर भारत में लम्बी बहस हुई है । अगर आप ग़ौर से देखेंगे तो भारत में यह बहस दो तरह के दबावों की वजह से चलती है । पहला दबाव भारत के धुर हिंदुत्ववादी खेमे का है ,जिसे लगता है कि ‘मुसलमान सुनुयोजित तरीक़े से भारत में जनसांख्यकीय बदलाव करना चाहते हैं । दूसरा दबाव , उदारवादियों का है , जिन्हें उन बहुसंख्यक सांप्रदायिकों से शिकायत रहती है कि ये लोग ‘दस बच्चे’ पैदा करने की अवैज्ञानिक वकालत ‘रिएक्शन’ ’ में क्यों कर रहे हैं । एक तीसरा खेमा है , जो संख्या में ज़रूर छोटा है ,पर उसकी चिंता प्रकृति से सीमित संख्या में मिले संसाधनों से जुड़ी है । ज़्यादा संख्या में बढ़ते हुए लोग नेचर का इतना दोहन करेंगे कि संसाधनो की कमी के नए संकट पैदा हो जाएँगे । इसका परिणाम होगा – निचला जीवन स्तर ,युद्ध और भुखमरी- यह तीसरे खेमे की चिंता है ।

इस बहस से अलग इसके बैकग्राउंड में हम थोड़ा और गहरे चिंतन की तरफ़ बढ़ते हैं । लोग बच्चे क्यों पैदा करते हैं ? बच्चे हमारे जाने के बाद हमारी बची हुई पहचान हैं । हम अपनी अस्मिताएँ अपने बच्चों में सुरक्षित मानते है । इसलिए हमारे कमाए हुए धन का सब कुछ मरने के बाद हम अपने बच्चों को देना चाहते हैं । उनके ज़रिए हम लम्बे समय तक भोग कर सकते हैं ,मरने के बाद भी जीवित रह सकते हैं । प्रक्रति का ढाँचा भी हमें ऐसा बनाता है कि हम धरती पर जीवन चलाने के वाहक बने ।

प्रक्रति की इस ज़िम्मेदारी से अलग अगर हम इतिहास का रास्ता या खोजते हुए तय करें कि कब ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे पैदा किए गए । तो पहला जवाब मिलेगा , आदिम युग से 200 साल पहले तक मनुष्य ने इस सवाल पर गम्भीरता से नही सोचा है । यानी प्रकृति के संसाधनों के सामने इतनी बड़ी समस्या कभी खड़ी ही नही हुई कि हम बढ़ती संतति के सवाल पर सोचते ।यह बुरा समय यूरोप की औधयोगिक क्रांति और तर्क युक्त चिंतनो से बनी विशाल मशीनों से सम्भव हुआ है कि अब हमारे लिए प्रकृति के सावधानी भरे दोहन का सवाल बड़ा हो गया है । यानी जो तीसरे खेमे की चिंता है ,उसके बीज यूरोप से निकले हैं ,जिसकी मशीनी विकास की बीमारी ने पूरी दुनिया के इतिहास 200 साल तक क़ैद रखा है ।

इसके अलावा इतिहास में एक समय ऐसा आया जब यूरोप में ऐसी विचारधाराओं का जन्म हुआ ,जो इतिहास के एक हिस्से पर क़ब्ज़ा करना चाहती थीं । इतिहास पर छा जाने की यूरोप की इस वासना ने बच्चों को एक टूल की तरह इस्तेमाल किया । जर्मन माँओं को एक दौर में ज़्यादा बच्चों के लिए प्रोत्साहित किया गया । यह वही मानसिकता थी जो क़बीलाई समाजों में कभी रही होगी कि बच्चे ज़्यादा हों और लड़ाके हो तो वर्चस्व बना रहेगा ।इसीलिए द्वितीय विश्व युद्ध में औरतों को आदर्श माँ में बदलने की मुहिम सी चली ।

लेकिन इस बीच भारत क्या कर रहा था । भारत ही नही अगर हम पूरे एशियाई समाज को देखें ,तो वह यूरोप की इतिहास पर छा जाने की इस अंधी प्यास से बाहर था । इस अंधी प्यास ने दो विश्व युद्ध कराए जो कि विश्व का युद्ध नही दरअसल , विश्व के एक हिस्से यूरोप का आपसी झगड़ा था । अगर आप देखेंगे तो पश्चिम इतिहास से सबसे ज़्यादा पीड़ित रहा है और उसकी यह सबसे ज़्यादा इक्षा रही है कि कैसे वह प्रक्रति का स्वामी बन जाए ,कैसे वह इतिहास के एक वक़्त पर छा जाए। इस चिंतन के नतीजे से ही जनसंख्या का यह संकट पैदा हुआ , प्रकृति और आदमी के बीच का संतुलन दूषित हुआ ।

वही भारत की हज़ार साल की परंपरा और ईसा के बाद का इतिहास दूसरी कहानी कहता है । यहाँ मनुष्य का प्रकृति के साथ रिश्ता बहुत प्यारा और पूज्य सा रहा है । यहाँ प्रकृति का सीमित दोहन भी प्रार्थना के साथ हुआ है । हमारे दिन की शुरुआतों में सूर्य की रौशनी से प्यार की ख़ुशबू है ,धरती को माँ कहने की गरमाई है , तो पहली बात यह बढ़ती जनसख्या से नष्ट होती नेचर का सवाल यूरोप की सभ्यताइ ग़लती है ,जिसे आज पूरा एशिया भुगत रहा है । दूसरी बात भारत में बच्चे के जन्म की परम्परा संस्कार से जुड़ी है , यहाँ इसे दायित्व बोध से जोड़ा जाता है ,इसलिए यह किसी पर अधिकार ज़माने का टूल नही , इतिहास हड़पने का टूल नही , बल्कि यह संकट यहाँ सभ्यताई नही बल्कि सही निरोध साधनों के अभाव में हम से रूबरू हुआ है ।

इस मतलब यह नही कि जनसंख्या विस्फोट में हमारे हाँथ मैले नही है । परम्परा की ख़ामियों को निकालने की ज़िम्ममेदारी उन लोगों पर थी ,जो इसकी समझ रखते हैं । जैसे पुत्र मोह की ग्रंथि ,इस चक्कर में भारतीयों की जनसंख्या ज़रूर बढ़ी होगी या अंधविश्वासों में बढ़ाई गयी होगी । लेकिन परंपरा के ध्वजवाहकों ने इसके सुधार पर क्या कोई काम किया , बल्कि वह इस बात से घबराए हुए हैं कि हमारे ही देश की परंपरा में पूरी तरह शामिल हो चुके मुस्लिम अपनी संख्या बढ़ा लेंगे ।

हैरानी की बात यह है कि यह लोग भारतीयता के दुश्मन है । यहाँ परम्परा किसी पर शक करना नही, सिखाती । दूसरा, मुग़ल अगर संख्या बढ़ाने के अभियान से आए होते तो 600 साल से ज़्यादा समय तक वह शासन थे , तो ये हो चुका होता । वह यहाँ की परम्परा से मिलकर एक ऐसी अजेय ‘ भारतीय ज्ञान परम्परा’ में नवीन कला ,शिल्प और ज्ञान के दूसरे क्षेत्रों को जोड़ने में सफल रहे हैं ,जिससे भारतीयता और ज़्यादा मज़बूत हुई है । उसके उलट साम्प्रदायिक हिंदुत्ववादी यूरोप की उसी मानसिकता के ग़ुलामी कर रहे हैं , जहाँ इतिहास के एक हिस्से को क़ैद कर लेने की चाहत है , नया नेशन स्टेट बनाने की चाहत है , जिसमें या तो दूसरी जातियों पर शक करते हुए क़ानून लाया जाएगा या फिर ख़ुद अपनी जाति से 10 बच्चे पैदा करने की अपील की जाएगी । यह यूरोप का बीज इतना गहरा है कि आज के संस्कृति पुरोधा उसके शिकार हो कर भी उसे समझ नही पा रहे हैं ।

Ashutosh Tiwari

अपने विषय में बताना ऐसा लगता है, जैसे स्वयं को किसी अजनबी की तरह देख रहा होऊँ । लेकिन ख़ुद को अजनबी की तरह देखना ही हमें ईमानदार बनाता है। नाम आशुतोष तिवारी है । कानपुर से हूँ। शुरुआती पढ़ाई हुई होम टाउन से। फिर पत्रकारिता से स्नातक की पढ़ाई करने दिल्ली आ गया। 2016 में IIMC में डिप्लोमा किया और आ गया IPAC । चार साल यानी 2020 तक यहीं रहा। मीडिया फ़ील्ड डेटा, PIU और लॉजिस्टिक आदि लगभग सभी गलियारों में घूमा और 2020 में चला गया हिंदी से मास्टर और JRF करने। अब फिर से 2021 में वापस आ गया हूँ। एक यूट्यूब चैनल है। हिंदी साहित्य में ख़ास रुचि है। किताबें पढ़ना, फ़िल्में देखना पसंद है।

Leave a Reply

avatar