सियासत, मौकापरस्ती और कट्टरता का नया टूल बनता “धर्म”|

लेखक प्रशांत शुक्ला

किसी भी धर्म की परिभाषा उसके मानने वालों पर निर्भर करती है। धर्म को कोई कैसे और कितना साथ लेकर चलता है या किसी के जीवन में उसका कितना महत्व है, यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है। मुझे लगता है धर्म को मानना या नहीं मानना या फिर उसे किस अनुपात में मानना है, यह बेहद व्यक्तिगत मसला है। यह हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग हो सकता है। मैं अपनी बात करूं तो मेरे लिए धर्म व्यक्ति को संयमित रखने का एक टूल है। जीवन में क्या नहीं करना है, कैसे रहना है, लोगों के प्रति कैसे विचार या व्यवहार रखना है, यह बातें मैं धर्म से अपने भीतर आत्मसात करता हूं। मेरे लिए धर्म कट्टरता का परिचायक नहीं है, क्योंकि मैं उसे एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर एक व्यवस्थित जीवन जीने के तरीके से देखता हूं। कई लोगों के लिए यह सांप्रदायिक परिधि का पैमाना हो सकता है।

मुझे लगता है धर्म के मामले में चाहे इस्लाम की बात हो या फिर सनातन धर्म की, या फिर दुनिया के किसी भी धर्म, जाति या जेंडर की। हमें यह समझना होगा कि धर्म नफरत का टूल नहीं है, धर्म एक दायरे की ऐसी परिधि है जिसमें व्यक्ति संयम सीखता है, सामाजिक ताना-बाना समझता है, एक-दूसरे के ईश्वर या अल्लाह के प्रति श्रद्धा रखता है। नफरत की पौध हर धर्म में उग रही है, हमारे यहां हिन्दू-मुस्लिम की उपजाऊ मिट्टी खोजकर सियासत का पौधरोपण किया जा रहा है, और यह दोनों तरफ से हो रहा है, इसमें कोई अतिशंयोक्ति नहीं है। अगर हिन्दुओं का एक तबका नफरत फैला रहा है या कट्टरता को सींच रहा है तो मुस्लिम भी उसमें पीछे नहीं हैं। लेकिन हमें यह समझना होगा कि किसी भी धर्म के मानने वालों को एक तरफ से सबको कट्टर या नफरती मान लिया जाए, यह सही नहीं है।

मौजूदा दौर में देश में जो माहौल है उसके लिए दोनों ही धर्मों के वो लोग जिम्मेदार हैं, जो किसी न किसी तरह से सांप्रदायिक चिंगारी उड़ाकर अपने हित साधना चाहते हैं। नफरत की इस नाव में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही तरफ कुछ ऐसे भी मुसाफिर सवार हैं, जो एक ही तरह के विचारों से प्रभावित हैं, जिन्होंने कभी दूसरी तरफ देखने की कोशिश नहीं। किताब का दूसरा पन्ना पलटते तो शायद समझ जाते कि कट्टरता किसी भी समस्या का हल नहीं है। या फिर उन लोगों को दूसरा पहलू कभी देखने ही नहीं दिया गया। लेकिन इन सब में नुकसान सिर्फ ऐसे ही लोगों का होगा जो किसी अन्य व्यक्ति के विचारों को ढो रहे हैं। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जो लोग धर्म की ढाल बनाकर मौकापरस्ती से अपना स्वार्थ सिद्ध करने की जुगत में हैं वो सिर्फ आपको ही नहीं बल्कि अपने धर्म को भी टूल की तरह ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

पिछले कुछ दिनों से देश में हिंदू-मुस्लिम में वैचारिक तलवारें खिंची हैं। गौर से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि ज्ञानवापी की मुद्दा अचानक नहीं प्रकट हुआ। इसे एक लंबी प्रक्रिया के तहत पहले सुलगाया गया फिर इसमें धार्मिक कट्टरता का पलीता लगाया गया। ताकि बढ़ती महंगाई, गिरते रुपये जैसे मुद्दों को धर्म की चिता पर स्वाहा किया जा सके। हुआ भी यही, सरकारी सुपारी किलर और नफरत के आकाओं ने दिन-रात टीवी चैनलों पर बहसें कीं, एक-दूसरे धर्म के ठेकेदारों को चैनलों पर बुलाया गया। गालियां दिलवाई गईं। कभी किसी ने कथित शिव लिंग को फव्वारा बताया तो, तो कभी किसी ने सड़क के किनारे बने गुंबदों को शिव लिंग बताया। एक दूसरे के धर्म को गालियां देने का सिलसिला ऐसा चला कि उसका अंजाम वही हुआ जो सियासत चाहती थी।

सत्ताधारी पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा हिंदुत्व की हार्ड लाइन पकड़कर पार्टी की नज़र में आना चाहती थीं, वह भी अपना हिस साधना चाहती थीं, सो उन्होंने अपना दांव चला। तो कट्टर इस्लामिक संगठन और धर्म के ठेकेदारों ने अपनी दुकान गुलजार करने का रास्ता भी अपने धर्म की धुरी तलाशना शुरू किया। ज़हरीली टीवी डिबेट युद्ध का मैदान बन गई हैं, यह बात हम पिछले कुछ बरस से देखते चले आ रहे हैं। बीजेपी की राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने पैगंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी की तो दुनिया भर के इस्लामिक देशों ने इसकी भर्त्सना की। भारत सरकार पर दबाव बनाया तो सरकार ने अपनी पार्टी के नेताओं नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल को पार्टी से बाहर कर दिया। इतना हीं नहीं अपनी पार्टी के नेताओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फ्रिंज एलीमेंट करार दिया। बीजेपी ने अच्छा काम किया और उसके इस कदम का स्वागत होना चाहिए। लेकिन यह कार्रवाई बीजेपी के शायद इंटरनेशनल दखल से पहले करनी चाहिए थी। कार्रवाई उन पर भी होनी चाहिए थी जिन्होंने शिवलिंग का अपमान किया या अपशब्द कहे। हालांकि कुछ लोगों पर अलग अलग जगहों पर प्रशासन ने अपने स्तर से कार्रवाई की भी।

कायदे से नफरत की चिंगारी इसके बाद शांत हो जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा हुआ था। पिछले दिनों कानपुर के बेकनगंज और नई सड़क इलाके में हजारों मुस्लिमों की भीड़ ने 2 घंटे तक जो उत्पात मचाया। यह भीड़ भी नफरत से सींची गई उस कट्टर पौध का ही प्रतिफल था जिसे मौकापरस्ती के साये में एक टूल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था। मुस्लिम लोगों ने पत्थरबाजी की, तो उस घटना बाद से लगातार हिंदू, मुस्लिमों को उकसाने का काम कर रहे हैं। एक तरफ से कट्टरता का मुजाहिरा किया गया तो दूसरी तरफ कई नए कट्टर पैदा हो गए। मुस्लिम इस बात से खुश हो रहे हैं कि भारत सरकार इस्लामिक देशों के दबाव की वजह से झुक गई और हिंदू इस वजह से खुश हैं कि कानपुर के आरोपियों के घरों पर ”बुलडोजर चलेगा” या ”मुस्लिम टाइट हो जाएंगे” । दूसरी तरफ जो मुस्लिम भारत के झुकने पर खुश हैं और उलटा-सीधा सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं, उससे हिंदुओं में यह बात घर कर रही है कि यह देश के गद्दार हैं। तो मुस्लिमों के ज़ेहन में यह बात है कि सरकार देश में मुसलमानों को दबाना चाहती है और उनकी आवाज सुनी नहीं जा रही है। कहीं तक यह बात सच भी है, क्योंकि अगर सरकार अंतर्राष्ट्रीय दखल से पहले यह एक्शन ले लेती तो शायद ऐसे हालात नहीं बनते। या फिर ज़हरीली टीवी डिबेट पर लगाम लगाती तो शायद एक दूसरे के धर्म को गाली देने का मंच ही नहीं मिलता और माहौल सामान्य रहता। लेकिन सरकार अगर ऐसा करती तो वह उन बुनियादी सवालों के भंवर में घिरती चली जाती, जो सवाल ज्ञानवापी मुद्दे से पहले उस पर उठ रहे थे। जैसे- बेरोजगारी, महंगाई, रुपया, सरकारी उपक्रमों की नीलामी इत्यादि। बहरहाल धर्म की नींव पर कट्टरता के दरख्तों के तले सियासत फल-फूल रही है। समझना आपको है कि आप अपने मोबाइल का डेटा नफरत पर खर्च कर रहे हैं या कुछ नया सीखने और पढ़ने पर।

The views expressed in this article are those of the author and do not represent the stand of Youth in Politics.

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