कर्पूरी ठाकुर – एक जननायक

लेखक : विंध्यांचल सचान , के. डी. यादव

24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर जिले के पितोंझिया गाँव में एक लड़के का जन्म हुआ नाम रखा गया कर्पूरी ठाकुर। जाति से नाई कर्पूरी ठाकुर पढाई में तेज़ थे और साथ ही राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रभावित थे जिसके चलते उन्होंने अखिल भारतीय छात्र संघ की सदस्यता ली और भारत छोड़ो आंदोलन में भी भाग लिया।

कर्पूरी हमेशा से ही राजनीति में शामिल होकर देशहित के लिए काम करना चाहते थे और इसी प्रयास के तहत 1952 में वे पहली बार सोशलिस्ट पार्टी से ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और विधायक चुने गए। कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने की कहानी साल 1969 के खंडित जनादेश के बाद शुरू हुई. काफी उठापटक के बाद 22 दिसंबर 1970 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और उन्होंने उसी जनसंघ के साथ सरकार बना ली जिसका वह कुछ महीनो पहले विरोध कर रहे थे|

कर्पूरी ठाकुर जैसा ईमानदार नेता भारतीय राजनीती में शायद ही कोई और हुआ होगा। अति पिछड़ी जाति से आने के कारण उनको पैसो की तंगी हुआ करती थी| एक बार की बात है जब पटना में जेपी के आवास पर एक बैठक में वह पहुंचे थे| तब वह बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री थे| बैठक में चंद्रशेखर की नज़र कर्पूरी के कुर्ते पर पड़ी| उनका कुर्ता फटा हुआ था. तुरंत चंद्रशेखर ने सारे नेताओ से चंदा करके उनके लिए एक नए कुर्ते का इंतेज़ाम करवाया था|

कर्पूरी जेपी के काफी करीबी थे। उन्होंने जेपी के साथ “संपूर्ण क्रांति” और इमरजेंसी के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व भी किया था| वह डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना राजनैतिक गुरु भी मानते थे| उन्होंने लोहिया से प्रेरणा लेते हुए राज्य में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया और 6 एकड़ से कम जोत वाले किसानो से कर न लिया जाये इसके लिए सदन से एक बिल पारित करवाया|

बिहार के दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने साल 1978 में मुंगेरीलाल कमिशन की रिपोर्ट लागू कर दी| यह मंडल कमिशन से 10 साल पहले की बात थी| इस रिपोर्ट में पिछडो को 20 फीसदी आरक्षण की सिफारिश थी. पर इसमें में भी दो श्रेणिया थी| एक श्रेणी थी दबंग पिछड़ी जातियों की जिसमें यादव, कुर्मी अन्य जातिया आती थी| इनको 8 फीसदी आरक्षण का प्रावधान था. जबकि दूसरी श्रेणी में हिन्दू और मुस्लिम की कई जातिया को जिनको अति पिछड़ा भी कहा गया उनको 12 फीसदी आरक्षण का प्रावधान था| इस फैसले के बाद उनका विरोध बढ़ गया|

कर्पूरी ठाकुर के एक और फैसले ने उनका राजनैतिक करियर अवसान की ओर धकेल दिया। वह फैसला था जमीन की हदबंदी का| अगर यह कानून लागू हो जाता तो जमीन पर मिल्कियत की सीमा तय हो जाती। जाहिर तौर यह फैसला सवर्ण को और पिछडो में यादव , कुर्मी और कुशवाहा समेत अन्य जातियों को चुभने लगा क्यूकि इन जातियों के पास सबसे ज्यादा जमीनें थी| वह जब पहली बार विधायक बने थे तब उन्होंने एक प्राइवेट मेंबर बिल भी पेश किया था| पर मुख्यमंत्री बनने के बाद वह इसे लागू करने चाहते थे| उन्होंने जब यह बिल कैबिनेट के सामने पेश किया गया. तब सवर्णो के साथ-साथ उनको पिछड़े विधायकों का विरोध झेलना पड़ा. आखिरी में उन्होंने बिल को वापिस लेने का फैसला किया।

कर्पूरी जी के मुख्यमंत्री पद के ताबूत क़ी आखिरी कील साबित हुए जमेशदपुर में हुए दंगे। इन दंगो को रोकने में सरकार की नाकामी ने उन पर सवाल खड़े किये और अंत में उनको इस्तीफा देना पड़ा|

फिर वह कई बार नेता प्रतिपक्ष चुने गए. उन पर एक महिला ने बलात्कार का मुकदमा भी कराया पर कोर्ट ने उनको बाइज़्ज़त बरी कर दिया। फिर एक समय ऐसा भी आया जब उनके नेता-प्रतिपक्ष होने पर सवाल भी उठना शुरू हो गया और पार्टी के अन्य नेताओ ने उनके खिलाफ बगावत कर दी और फिर उनसे नेता-प्रतिपक्षी भी छीन ली गयी| 17 फ़रवरी 1988 को कर्पूरी ठाकुर का दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया|

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